रविवार, 6 नवंबर 2011

माता-पिता को मुखाग्नि एक बेटी क्यों नही दे सकती?

                                 आज मेरे दिमाग में एक प्रष्न बार-बार उमड रहा है कि माता- पिता को मुखाग्नि एक बेटी क्यों नही दे सकती है?कहा भी जाता है कि माता पिता के लिए पुत्र व पुत्री समान है और कानूनी रूप से भी सम्पति में भी समान रूप से हकदार है। आज बेटीया उॅच षिक्षा प्राप्त कर पुरूष्ोैे के बराबर उॅची नौकरीया कर रही है।आज वे भी घर की चारदीवारी लाॅघकर खुली हवा में साॅस ले रही है। फिर क्यों इसे इस अधिकार से वंचित किया जाता है यह एक विचारणीय प्रष्न है।


                     हमारे   ष्षास्त्रों व रीति व रिवाजो के अनुसार माॅ-बाप का दाह-संस्कार उनके पुत्र के हाथों होता है व बेटे के न होने पर समाज के या परिवार के अन्य  पुरू ष्ो द्धारा माता-पिता की चिता को मुखाग्नि दी जाती है ।जब बेटीया विरोध करती है और माता -पिता को मुखाग्नि देने की बात करती है,तो रूढियों में जकडा भारतीय समाज षास्त्रों  व मोक्ष न होने की दुहाई देकर इसे नकार देता है। यह एक विचारणीय पहलू है कि माॅ-बाप का अपना खून होते हुए भी एक बेटी घर के एक कोने में बैठी षोक मनाते हुए, किसी दूसरे को माता-पिता के दाह संस्कार का हक कैसे दे सकती है। चुकि आज हमारी सामाजिक मान्यताओं व रूढियों में बहुत बदलाव आया है,एक और जहाॅ बेटियो ने चारो दिषाओं मे अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है, ऐसे में बेटिया को उनके अधिकार से वंचित करके समानता की दुहाइ्र देने वाला यह समाज हमारी बेटियोे के साथ यह कैसा न्याय कर रहा है।


                           जीते जी माता-पिता की अपेक्षा करने वाले बेटे उनके मरने पर  उनकी अंतेष्टि पर  लाखों रूपये खर्च करके  तथा संवेदनहीन समाज को भोज देकर यह  दिखाने में सफल हो जाते है कि उनका अपने माता-पिता से बहुत लगाव था।बेटिया जो निःस्वार्थ भाव से माता-पिता की सेवा करती है,लेकिन उसे मुखाग्नि देने का अधिकार नहीं होता है।कहा जाता हैकि माता पिता की मृत देह को बेटा दाह-संस्कार नही करेगा या बेटा कंधा नहीं देगा तो उनकी आत्मा को षांति नही मिलेगी या मोक्ष की प्राप्ति नही होगी। लेकिन यह सोच बदलनी होगी ।बेटी तो माता-पिता की आत्मा है,और आत्मा तो कभी नही मरती है ,बेटियों को यह अधिकार मिलना ही चाहिये।

                                  श्रीमति भुवनेष्वरी मालोत
                                 अस्पताल चैराहा
                                   महादेव काॅलोनी
                                    बाॅसवाडा राज             

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

WEERA: मिठाई खरीदने और उपयोग करने संबधी टिप्स या सोचिए-...

WEERA: मिठाई खरीदने और उपयोग करने संबधी टिप्स या सोचिए-...: दीपावली रोशनी, उल्लास व खुशियों का त्यौहार है। बि...

WEERA: मिठाई खरीदने और उपयोग करने संबधी टिप्स या सोचिए-...

WEERA: मिठाई खरीदने और उपयोग करने संबधी टिप्स या सोचिए-...: दीपावली रोशनी, उल्लास व खुशियों का त्यौहार है। बि...

मिठाई खरीदने और उपयोग करने संबधी टिप्स या सोचिए- मिठाई खरीदने से पहले

                                                                         


             दीपावली रोशनी, उल्लास व खुशियों का त्यौहार है। बिना मिठाईयों, स्वादिष्ट व मनभावन पकवानों के दीपावली अधूरी है, कई गृहणीयां दीपावली पर घर में मिठाईयां बना लेती है,फिर भी अधिकाश घरों में समय के अभाव व विभिन्नता के चक्कर में व उपहार में देने के लिए मिठाईयां बाजार से खरीदनी ही पडती है।बाजार से मिठाई खरीदने से पहले कुछ सावधानियाॅ बरती जाए,तो स्वास्थ्य व पैसो के नुकसान से बचा जा सकता है।
          इस त्योहार पर हलवाई कई दिनों पहले मिठाईयाॅ बनाना शुरू कर देते है, अधिकांश मिठाईयां दूध से बने मावे,छैने तथा पनीर से बनाई जाती है, जिसे हलवाई कई दिनो पहले तैयार करके रखते है, इससे बनी मिठाईयां स्वास्थ्य पर बुरा असर डालती है, कई बार इसका सेवन करने से जी मिचलाना, पेट मेे दर्द,दस्त-उल्टी आदि बीमारियाॅ त्योहार के मजे को किरकिरा कर देती है, अतः मिठाईयां खरीदने व उपयोग करने से पहले निम्न बातो पर गौर करना जरूरी है।


ऽ दूध से बनी मिठाईयां आवश्कतानुसार ही लाये, क्योंकि ये दो दिन में खराब हो जाती है।





ऽ ध्यान रहे मिठाई  के वजन के साथ गते के डिब्बे का वजन  शामिल न हो।

ऽ चॅादी के वरक से सजी मिठाई का उपयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं ,क्योंकि चांदी के स्थान पर शीशे आदि की मिलावट आम बात है।


ऽ बंगाली मिठाईयों जैसे चमचम, रसगुल्ला,राजभोग आदि पुरानी होने पर अपना स्वाभाविक स्वाद खो देती है,इसलिए ऐसे अवसर पर न खरीदे।

ऽ मिठाई को खरीदने के बाद गते के डिब्बे से निकालकर अन्य पात्र में रखे ,ताकि ज्यादा दिन तक सुरक्षित रह सके ।

ऽ उपहार में मिठाई देते समय दूध से बनी मिठाई न खरीदे। जरूरी हो तो खरीदते समय विशेष सावधानी बरते

ऽ टेस्ट करके ही हलवाई से मिठाई खरीदे और लम्बे समय के लिए उपयोग करनी हो तो, उसे फ्रीज में रख दे।

ऽ रंगीन मिठाईयों के रंग स्वास्थ्य के लिऐ हानिकारक है, जहां तक संभव हो बिना रंग की मिठाईयां ही खरीदे ।

ऽ जहा तक संभव हो अपने हाथों से बनी मिठाईयों व  पकवान से इस त्योहार को मनाईये। 

  थोडी सी सावधानी के साथ इस त्योहार का मजा लिया जा सकता है।






लेखकः-
 श्रीमति भुवनेश्वरी मालोत
  अस्पतालचैराहा,                                        
महादेव का.लोनी,    
बांसवाडा राज.
  

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011

बच्चों को अच्छे संस्कारों की वसीयत दें






                 कल मै अपनी सहेली से मिलने उसके घर गई, हम लम्बे समय के बाद मिले थे, आपस में गपषप में मषगूल हो गए, पास में ही उसके बेटे के दो प्यारे-प्यारे बच्चे खेल रहे थे कि अचानक दोनों में किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया इतने में मेरी सहेली की बहू आयी और बिना कारण जाने दोनों बच्चों को एक-एक चांटा मारा और डाँटकर अपने कमरे में जाकर पढ़ने को कहा दोनों बच्चे रूआसे होकर चले गए लेकिन मेरे समक्ष एक प्रषन छोड़ गये क्या मारने-पिटने से बच्चे सुधर जायेंगे। नहीं, यह हम सभी जानते हैं कि मारने से बच्चे सुधरते नहीं और ज्यादा बिगड़ जाते हैं। बच्चा षब्द दिमाग में आते ही एक भोला भाला जिद करता हुआ मासूम-सा चेहरा आंखों के सामने घूम जाता हैं, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिस संस्कार रूपी ढाँचे में डालेंगे वैसे ही बन कर निकलेंगे। बच्चों का भविष्य परिवार के वातावरण व माता-पिता के संस्कारों पर निर्भर करता हैं, वे काँच की तरह होते हैं, उन्हे तोड़ने के बाद जोड़ना बड़ा मुष्किल होता हैं। अगर माँ-बाप उनके साथ कठोर व्यवहार करते हैं तो वे भय के कारण झूठ बोलने लगेंगे। अपनी समस्या को माँ-बाप के साथ ष्षेयर नहीं कर पायेंगे जिससे वे अन्दर ही अन्दर घुटने लगेंगे। बाल्यावस्था बहुत ही नाजुक होती हैं इसमें कई ष्षारीरिक व मानसिक परिवर्तन होते हैं। ऐसे समय में बच्चों को कठोरता के साथ वात्सल्य व प्यार की भी जरूरत होती हैं। इसलिए बच्चों के साथ संतुलित व्यवहार करना जरूरी हैं।




                     आज बच्चों का बचपन तो विज्ञापनों के रंग-बिरंगे मोहजाल में जकड़ चुका हैं। वह टी.वी व पिक्चरों के पात्रों की तरह व्यवहार करते हैं जो हिंसक व अष्लील होते हैं इसका प्रभाव उनके मस्तिष्क पर उतना पड़ता हैं कि वे समय से पहले व्यस्क हो जाते हैं और सब कुछ जानने के लिए उत्सुक रहते हैं। इस उम्र में बच्चे रेत की तरह होते हैं जितना कसकर पकड़ने की कोषिष करंेगे उतना हाथ से फिसल जायेंगे।


                    आज हम बच्चों केा क्या सीखा रहे हैं, आप स्वंय जानते है, बच्चों को कहते हैं बेटा मार खा कर मत आना, जो तेरे साथ जैसा व्यवहार करता हैं उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना। आज हम जब कोई घर में या स्कूल में बच्चे की भलाई के लिए डाँटते हैं या मारते हैं तो हम बच्चे का पक्ष लेते हैं और उनसे कहते हैं बच्चे को हाथ लगाने की जरूरत नहीं हैं, साथ ही आधुनिकता का सहारा लेकर माता-पिता बच्चों को आवष्यकता से अधिक लाड-प्यार दिखाकर जिद पूरी करके उनकी गलत आदतों को प्रोत्साहन देते हैं उनकी भूलों पर परदा डालने का कार्य करके उनके षुभ चितंक बनने के बजाय उनके षत्रु बन जाते हैं यहीं बच्चे जब बड़े होकर माता-पिता को पलटवार जवाब देते हैं। कहना नहीं मानते, गलत कार्य करते हैं, तब माता-पिता को होष आता हैं लेकिन अब पछताने में क्या फायदा बहुत देर हो चुकी होती हैं।

                   जैसे महावत हाथी के पैर में रस्सी ड़ालता हैं एवम् उसके छोटे बच्चे के पैर में भी जंजीर डालता हैं ताकि उसकी आदत में आ जाए। माता-पिता को भी बच्चों की वृद्धि को ध्यान रखते हुए व्यवहार करना चाहिए। बच्चों को चिंतित व व्यथित चिल्लाने वाली माँ नहीं चाहिये, उन्हे मनस्वी व प्रभावी माँ चाहिये जो उसके साथ संवाद बनाये रखे। कहा जाता है कि जो माँ दक्षता के साथ बच्चों के पेट में घुसना जानती हैं उसके बच्चे कभी गलत राह पर नहीं जा सकते हैं। माता-पिता को हमेषा अपना तीसरा नैत्र जागृत रखना चाहिए।

                        कहा गया हैं कि पूत कपूत तो क्यो धन संचय, पूत सपूत तो क्यो धन संचय। इसलिए आपका असली धन तो बच्चे हैं इसलिए बच्चों को अपने व्यस्त जीवन का कुछ समय अवष्य दे ताकि उन्हे अच्छे संस्कारों की वसीयत मिल सकें।
 


              यह सच हैं कि आज समय व परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं पाष्चात्य संस्कृति के कारण माँ-बाप की भूमिका में भी बदलाव आया हैं। आधुनिक बच्चे माँ नहीं सुपर माॅम चाहते हैं इसलिए समय के साथ आपको भी बदलना होगा, सुपर माॅम बनकर सुपर गुणों का वारिस बच्चों को बनाना होगा ताकि वह आपकी बगिया का सुन्दर फूल बन सके।
           
           प्रेषक -
          श्रीमति भुवनेष्वरी मालोत
           महादेव कालोनी
           बाँसवाड़ा (राज.)
           मो. 9414101780

सोमवार, 26 सितंबर 2011

WEERA: पहले श्रृद्धा, फिर श्राद्ध करे

WEERA: पहले श्रृद्धा, फिर श्राद्ध करे: हमारी संस्कृति कई रीति रिवाजों और परम्पराओं का समन्वय लिए हुए है। हिन्दुओं में श्राद्ध प्रथा बहुत प्राचीन है,जो आज भी अति शुभ मानी जाती है। ...

पहले श्रृद्धा, फिर श्राद्ध करे

हमारी संस्कृति कई रीति रिवाजों और परम्पराओं का समन्वय लिए हुए है। हिन्दुओं में श्राद्ध प्रथा बहुत प्राचीन है,जो आज भी अति शुभ मानी जाती है। हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार मृतात्मों को उचित गति मिले, इसके हेतु मरणोउपरांत पिडदान, श्राद्ध और तर्पण की व्यवस्था की गई है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धापूर्ण व्यवहार तथा तर्पण का अर्थ है तृप्त करना, श्राद्ध-तर्पण का अर्थ है पितरो को तृप्त करने की प्रक्रिया है। आश्विन मास में श्राद्ध पक्ष में पितरों का तर्पण किया जाता है और पितरों की मृत्यु के नियत तिथि पर यथाशक्ति बम्ह भोज और दान दिया जाता है। शास्त्रो में व गुरू पुराण में कहा गया है कि संसार में श्राद्ध से बढकर और कल्याणप्रद ओर कोई मार्ग नहीं है,अतः बुद्धिमान व्यक्ति को प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिए। पितृ-पूजन से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग , कीर्ति , पुष्टि, बल, वैभव, पशु, सुख, धन और धान्य देते है। 

      मुगल बादशाह शाहजंहा ने भी हमारी संस्कृति  के श्राद्ध पक्ष की सराहना की है,जब उनके क्रूर्र पुत्र सम्राट  औरंगजेब ने उन्हें जेल में बंद कर यातना दे रहा था और  पानी के लिए तरसा रहा था । आकिल खाॅ के ग्रंथ वाके आत आलमगीरी के अनुसार शाहजहा ने अपने पुत्र के नाम पत्र में मंर्मात वाक्य लिखे थे ‘है पुत्र तू भी विचित्र  मुसलमान है, जो अपने जीवित पिता को जल के लिए  तरसा रहा है,शत्-शत् बार प्रशंसनीय है,वे हिन्दु जो अपने मृत पिता को भी जल देते है।’

         अगर हमारे मन में जीवित माता-पिता बुर्जगों के प्रति श्रद्धा नहीं है तो उनके मरने के बाद उनका श्राद्ध मनाने का औचित्य क्या है,हम श्राद्ध इस डर से मनाते है कि हमारे पितरों की आत्मा कही भटक रही होगी तो हमें कही नुकसान नही पहुचाए,उनका अन्र्तमन उनको धिक्कारता हैकि हमने अपने मृतक के जीते जी उन्हें बहुत तकलीफ पहुचाई है,इसलिए मरने के बाद ये  पितृ हमें भी तकलीफ पहुॅचा सकते है।इसलिए हम श्राद्ध    पक्ष मनाकर अपने पितरों को खुश करने का प्रयास करते   है। 

         जिस काग की सालभर पूछ नहीं होती है  उन्हें श्राद्ध पक्ष में कागो-वा-2 करके छत की मुडेर पर  बुलाया जाता है और पितरो के नाम से पकवान खिलाये  जाते है और पानी पिलाया जाता है,खा लेने पर यह सोचकर सन्तुष्ट हो जाते है कि हमारे पिृत हमसे प्रसन्न   है।

       आज की युवा-पीढी में श्राद्ध मनाने के प्रति श्रद्धा  भाव खत्म हो चुका है,वह समाज की नजर में प्रंशसा  पाने और दिखावे के लिए लम्बे-चैडे भोज का आयोजन  करती है।हमे हमारे बुर्जगों को जीते जी प्यार ,सम्मान व  श्रद्धा देनी होगी।      

      श्राद्ध पक्ष हमें अपने पूर्वजों के प्रति   अगाध श्रद्धा और स्मरण भाव के लिए प्रोत्साहित करता है, हमें इसे सादगीपूर्वक मनाकर भावी पीढी को भी  अनुसरण करने की प्ररेणा मिलेगी।                                                                    
                         प्रेषकः-
 श्रीमति भुवनेश्वरी मालोत
 अस्पताल चैराहा
  महादेव कॅालोनी
 बांसवाडा राज