सोमवार, 26 सितंबर 2011

WEERA: पहले श्रृद्धा, फिर श्राद्ध करे

WEERA: पहले श्रृद्धा, फिर श्राद्ध करे: हमारी संस्कृति कई रीति रिवाजों और परम्पराओं का समन्वय लिए हुए है। हिन्दुओं में श्राद्ध प्रथा बहुत प्राचीन है,जो आज भी अति शुभ मानी जाती है। ...

पहले श्रृद्धा, फिर श्राद्ध करे

हमारी संस्कृति कई रीति रिवाजों और परम्पराओं का समन्वय लिए हुए है। हिन्दुओं में श्राद्ध प्रथा बहुत प्राचीन है,जो आज भी अति शुभ मानी जाती है। हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार मृतात्मों को उचित गति मिले, इसके हेतु मरणोउपरांत पिडदान, श्राद्ध और तर्पण की व्यवस्था की गई है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धापूर्ण व्यवहार तथा तर्पण का अर्थ है तृप्त करना, श्राद्ध-तर्पण का अर्थ है पितरो को तृप्त करने की प्रक्रिया है। आश्विन मास में श्राद्ध पक्ष में पितरों का तर्पण किया जाता है और पितरों की मृत्यु के नियत तिथि पर यथाशक्ति बम्ह भोज और दान दिया जाता है। शास्त्रो में व गुरू पुराण में कहा गया है कि संसार में श्राद्ध से बढकर और कल्याणप्रद ओर कोई मार्ग नहीं है,अतः बुद्धिमान व्यक्ति को प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिए। पितृ-पूजन से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग , कीर्ति , पुष्टि, बल, वैभव, पशु, सुख, धन और धान्य देते है। 

      मुगल बादशाह शाहजंहा ने भी हमारी संस्कृति  के श्राद्ध पक्ष की सराहना की है,जब उनके क्रूर्र पुत्र सम्राट  औरंगजेब ने उन्हें जेल में बंद कर यातना दे रहा था और  पानी के लिए तरसा रहा था । आकिल खाॅ के ग्रंथ वाके आत आलमगीरी के अनुसार शाहजहा ने अपने पुत्र के नाम पत्र में मंर्मात वाक्य लिखे थे ‘है पुत्र तू भी विचित्र  मुसलमान है, जो अपने जीवित पिता को जल के लिए  तरसा रहा है,शत्-शत् बार प्रशंसनीय है,वे हिन्दु जो अपने मृत पिता को भी जल देते है।’

         अगर हमारे मन में जीवित माता-पिता बुर्जगों के प्रति श्रद्धा नहीं है तो उनके मरने के बाद उनका श्राद्ध मनाने का औचित्य क्या है,हम श्राद्ध इस डर से मनाते है कि हमारे पितरों की आत्मा कही भटक रही होगी तो हमें कही नुकसान नही पहुचाए,उनका अन्र्तमन उनको धिक्कारता हैकि हमने अपने मृतक के जीते जी उन्हें बहुत तकलीफ पहुचाई है,इसलिए मरने के बाद ये  पितृ हमें भी तकलीफ पहुॅचा सकते है।इसलिए हम श्राद्ध    पक्ष मनाकर अपने पितरों को खुश करने का प्रयास करते   है। 

         जिस काग की सालभर पूछ नहीं होती है  उन्हें श्राद्ध पक्ष में कागो-वा-2 करके छत की मुडेर पर  बुलाया जाता है और पितरो के नाम से पकवान खिलाये  जाते है और पानी पिलाया जाता है,खा लेने पर यह सोचकर सन्तुष्ट हो जाते है कि हमारे पिृत हमसे प्रसन्न   है।

       आज की युवा-पीढी में श्राद्ध मनाने के प्रति श्रद्धा  भाव खत्म हो चुका है,वह समाज की नजर में प्रंशसा  पाने और दिखावे के लिए लम्बे-चैडे भोज का आयोजन  करती है।हमे हमारे बुर्जगों को जीते जी प्यार ,सम्मान व  श्रद्धा देनी होगी।      

      श्राद्ध पक्ष हमें अपने पूर्वजों के प्रति   अगाध श्रद्धा और स्मरण भाव के लिए प्रोत्साहित करता है, हमें इसे सादगीपूर्वक मनाकर भावी पीढी को भी  अनुसरण करने की प्ररेणा मिलेगी।                                                                    
                         प्रेषकः-
 श्रीमति भुवनेश्वरी मालोत
 अस्पताल चैराहा
  महादेव कॅालोनी
 बांसवाडा राज

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

बेटिया निराली होती है

मोरारी बापू ने अपने प्रवचन में बेटी को माता.पिता की आत्मा और बेटे को हृदय की संज्ञा दी हेै। हृदय की धडकन तो कभी भी बंद हो सकती है लेकिन बेटी व आत्मा का संबध जन्मजंमातर का रहता है वह कभी अलग नहीं हो सकती है।

वाकई हमारी बेटिया निराली है उसे आप बढने मे इतनी मदद करे की वह कली से फूल बनकर फिजा मे अपनी खूशबू बिखेरा करे इन बेटियों की उपलब्धिया असीम है ।जीवन को अमृत तुल्य बनाने वाली इन बेटियो को इतना प्यार .दुलार दो कि हर लडकी की जुबान पर यही बात हो अगले जन्म मोहे बिटिया ही कीजो।

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

कुसंस्कारो का प्रभाव



                            एक फोटोग्राफर के मन मं विचार आया कि अपने

स्टूडियो मे एक सुन्दर व सुसंस्कृत बालक का फोटो लगाये। इसके

लिए जगह-जगह घूमने के बाद उसको एक गांव में दस वर्षीय बालक

 सर्वाधिक सुन्दर लगा।उसने उसके माता -पिता की अनुमति से

उसका फाटो लिया और स्टूडियो में लगा दिया

                                        20 साल बाद उसके मन मे सबसे कुरूप

व्यक्ति का फोटो भी स्टूडियो में लगाने का विचार आया।इसके लिये

जेलों में जाकर अपराधियो से मिला जो लम्बा कारावास भुगत रहे थे

 । वहा उसे ऐसा व्यक्ति मिला जिसके चारो और मक्खिया भिनभिना

रही थी और शरीर से बदबू आ रही थी,दिखने में अत्यतं बुढा व

कुरूप लग रहा था।उसने सोचा इससे ज्यादा कुरूप व्यक्ति और कोई

नही हो सकता ।वह फोटो लेने लगा तो,वह व्यक्ति रो पडा।

                    रोने का कारण पूछा तो वह बोला जब मैं दस वर्ष का 

बालक था,तब भी एक फोटोग्राफर ने फोटो लिया था क्योंकि में उस

समय उसको सबसे सून्दर व सुसंस्कृत लगा था।किन्तु बाद में

कुसंस्कारों व कुसंगति के प्रभाव से गलत रास्ता पगड लिया और मेरे

 में कई दुर्गण आगये।जिससे झगडा,चोरी आदि करने लगा और

समाज मे भी घृणा की दृष्टि से दंेखा जाने लगा और आज में यहां

इस स्थिति मे पहुच गया।यह मेरे कुसंगति व कुसंस्कारो का ही

 परिणाम है। फोटोग्राफर बिना फोटो लिये ही वापस चला गया।

इससे पता चलता है कि वातावरण व संगति से व्यक्ति के संस्कार


प्रभावित हुए बिना नही रह सकते।संसंस्कारित बालक ही बडा होकर

 सफल होता है।पारिवारिक जीवन मे स्नेहपूर्ण वातावरण वनाता है,राष्ट्

 के विकास मे सहायक होता है अतः बच्चो को सुसंस्काति करने का

 प्रयत्न करना चाहिये ।







श्रीमति भुवनेश्वरी मालोत