शनिवार, 31 दिसंबर 2011

महिलाए ही नसबंदी क्यो कराये ,पुरूष क्यों नहीं

     टीक टीक चलती जनसंख्या की घडी हमें रोज इस बात के लिए आगाह करती है कि बेतहाषा बढती जनसंख्या विस्फोटक की गति को रोक लगाने के लिए राष्ट्ीय परिवार कल्याण कार्यक्रम द्धारा जगह-जगह नियमित नसबंदी f’kविर लगाये जाते है।पुरूष और महिला नसबंदी ही एक मात्र परिवार नियोजन का स्थाई समाधान है।
      जहां एक और महिलाओं के षरीर की रचना जटिल होती है।अधिकाष महिलाए जनन मू़त्र संस्थान के संक्रमण, ल्युकोरिया, एनिमिया और आॅस्टियोपोरोसिस से ग्रसित होती है।ऐसी स्थिति में उनको उनका बच्चा जनने का दायित्व बताकर नसबंदी कराइ्र्र जाती है।पुरूष प्रधान समाज में महिलाए आम तौर पर चुुपचाप यह स्वीकार कर आॅपरेषन करा लेती है क्योंकि नसबंदी न कराने पर गर्भवती होने का व प्रसव पीडा पुनः भोगने का डर उसे हमेषा बना रहता है।महिला न कराती है तो उसे गृह कलह का भी सामना करना पडता है। ऐसी विडम्बना में नारी के पास एक ही उपाय है कि वह सर्मपण कर दे और अपनी नसबंदी करा दे।
      जबकि इसके विपरित पुरूष अपनी नसबंदी नही करवाकर अपनी स्वेच्छा से सभी आनन्द लेना चाहता,उसको यह मिथ्या गुमान रहता है कि बच्चे पैदा करने का काम महिलाओं का ही है जब की वह पूर्ण रूप से बीजारोपण का जिम्मेदार  वह स्वयं है, अतः दोनो की समान भागीदारी आन पडती है ऐसे में इस तरह के कुठित विचारो से समाज मे इस कार्यक्रम के प्रति अलग ही नजरिया बन गया है ।कई पुरूष यह सोचते है कि नसबंदी कराने से उनकी मर्दानगी चली जायेगी और यौन क्षमता क्षीण हो जायेगी, जबकि वैज्ञानिक दृष्टि से पुरूष नसबंदी कुछ ही मिनटो का आउटडोर प्रोसिजर है।आजकल बीना टीका लगाये पुरूष नसबंदी होने का प्रचलन बन गया है। जो कोई भी पुरूष चलते फिरते कभी भी करा सकता है। इसे चिकित्सक लंच ब्रेक आपरेषन भी कहते है।
 परिवार की खुषहाली  के लिए पति-पत्नि दोनों का समान अधिकार है तथा वे दोनो ही संयुक्त रूप से जिम्मेदार है।पुरूष नसबंदी बहुत ही सरल,सुलभ और व्यवहारिक आॅपरेषन है,ऐसे में महिलाओं को आगे नसबंदी कराने धकेल देना कहा तक न्याय संगत है।
 प्रषेकः-
श्रीमति भुवनेश्वरी मालोत
  महादेव कालोनी
 बाॅसवाडा राज
      हमारे देष में छोटे परिवार की अवधारणा पर जोर लगाना होगा।  ग्रामीण और अनपढ महिलाये नौ महिनों की गर्भावस्था और प्रसव वेदना के बाद षिषु पालन का बोझ जिन्दगी भर उठाती रहती है।अधिकाष करीबन 99प्रतिषत मामलों में महिलाऐ ही नसबंदी ट्यूवेक्टामीद्ध कराती है
पुरूष  नसबंदी वेसेक्टोमीद्ध करीब करीब कम ही देखी जाती है।       अस्पताल में डिलेवरी के बाद चिकित्सक मरिज की रजाबंददी से नसबंदी करते है,जो एक अच्छी बात है, जबकि पुरूष कभी भी नसबंदी के लिए राजी नही होते है,वे महिलाओं को आगे धकेल देते है कि बच्चा पैदा करना पत्नि का काम है अतः बच्चे पैदा करने वाली फैक्ट्ी पर नसबंदी रूपी ताला लगा दिया जाना ही परिवार नियोजन है और यह काम पत्नि का है।

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

महिलाए ही नसबंदी क्यो कराये ,पुरूष क्यों नहीं

            टीक टीक चलती जनसंख्या की घडी हमें रोज इस बात के लिए आगाह करती है कि बेतहाशा  बढती जनसंख्या विस्फोटक की गति को रोक लगाने के लिए राष्ट्ीय परिवार कल्याण कार्यक्रम द्धारा जगह-जगह नियमित नसबंदी f’kfoj  लगाये जाते है।पुरूष और महिला नसबंदी ही एक मात्र परिवार नियोजन का स्थाई समाधान है।

      हमारे देश में छोटे परिवार की अवधारणा पर जोर लगाना होगा।  ग्रामीण और अनपढ महिलाये नौ महिनों की गर्भावस्था और प्रसव वेदना के बाद f’k’kq  पालन का बोझ जिन्दगी भर उठाती है।अधिका’k   करीबन 99प्रतिषत मामलों में महिलाऐ ही नसबंदी ;ट्यूवेक्टामी  कराती है,पुरूष  नसबंदी ;वेसेक्टोमी करीब करीब कम ही देखी जाती है।

       अस्पताल में डिलेवरी के बाद चिकित्सक मरिज की रजाबंददी से नसबंदी करते है,जो एक अच्छी बात है, जबकि पुरूष कभी भी नसबंदी के लिए राजी नही होते है,वे महिलाओं को आगे धकेल देते है कि बच्चा पैदा करना पत्नि का काम है अतः बच्चे पैदा करने वाली फैक्ट्ी पर नसबंदी रूपी ताला लगा दिया जाना ही परिवार नियोजन है और यह काम पत्नि का है।

      जहां एक और महिलाओं के ’kरीर की रचना जटिल होी है।अधिका’k महिलाए जनन मू़त्र संस्थान के संक्रमण, ल्युकोरिया, एनिमिया और आॅस्टियोपोरोसिस से ग्रसित होती है।ऐसी स्थिति में उनको उनका बच्चा जनने का दायित्व बताकर नसबंदी कराइ्र्र जाती है।पुरूष प्रधान समाज में महिलाए आम तौर पर चुुपचाप यह स्वीकार कर आॅपरे’kन करा लेती है क्योंकि नसबंदी न कराने पर गर्भवती होने का व प्रसव पीडा पुनः भोगने का डर उसे हमे’k  बना रहता है।महिला न कराती है तो उसे गृह कलह का भी सामना करना पडता है। ऐसी विडम्बना में नारी के पास एक ही उपाय है कि वह सर्मपण कर दे और अपनी नसबंदी करा दे।

      जबकि इसके विपरित पुरूष अपनी नसबंदी नही करवाकर अपनी स्वेच्छा से सभी आनन्द लेना चाहता,उसको यह मिथ्या गुमान रहता है कि बच्चे पैदा करने का काम महिलाओं का ही है जब की वह पूर्ण रूप से बीजारोपण का जिम्मेदार  वह स्वयं है, अतः दोनो की समान भागीदारी आन पडती है ऐसे में इस तरह के कुठित विचारो से समाज मे इस कार्यक्रम के प्रति अलग ही नजरिया बन गया है ।कई पुरूष यह सोचते है कि नसबंदी कराने से उनकी मर्दानगी चली जायेगी और यौन क्षमता क्षीण हो जायेगी, जबकि वैज्ञानिक दृष्टि से पुरूष नसबंदी कुछ ही मिनटो का आउटडोर प्रोसिजर है।आजकल बीना टीका लगाये पुरूष नसबंदी होने का प्रचलन बन गया है। जो कोई भी पुरूष चलते फिरते कभी भी करा सकता है। इसे चिकित्सक लंच ब्रेक आपरे’kन भी कहते है।

परिवार की खु’kहाली  के लिए पति-पत्नि दोनों का समान अधिकार है तथा वे दोनो ही संयुक्त रूप से जिम्मेदार है।पुरूष नसबंदी बहुत ही सरल,सुलभ और व्यवहारिक आॅपरेषन है,ऐसे में महिलाओं को आगे नसबंदी कराने धकेल देना कहा तक न्याय संगत है।

  प्रषेकः-
  श्रीमति भुवनेश्वरी मालोत
 महादेव     काॅलोनी
                                            बाॅसवाडा राज

रविवार, 27 नवंबर 2011

नई दुल्हन -मैं, माॅव मायके से बचे


                                                             

                       विवाह के बाद इस गाने के साथ ’बाबुल की दुआॅए लेती जा:ःःःःःःःमायके की कभी याद न आये,दुल्हन की विदाई होती है।दुल्हन भी दिल में कई सपने संजोये व हसरत लिए सुसराल में कदम रखती है,लेकिन सुसराल में अपने पिया की प्रिया बनने के साथ सास-ससुर की दुलारी बहु, देवर व नंनद की प्यारी मां स्वरूपा भाभी भी बनना हैै।नई दुल्हन सुसराल वालो के लिए आकर्षण का केन्द्र बिन्दु होती है,समस्त परिवार की निगाहें उसके चाल,व्यवहार ,हॅसने व उठने -बैठने  पर होती है, ऐसे समय में नई दुल्हन को कुछ बातों को भुलना होगा कुछ को अपनाना होगा।
 सर्वप्रथम नई दुल्हन को अपने अहम् को त्यागकर ‘मै’ के स्थान पर हम को अपनाना होगा।

  माॅ का स्थान सुसराल में सासुमां को देना होगा।

 मीठी वाणी से सबके दिलो पर राज करना होगा।
 बात-बात मेें मायके के गुणगान न करके सुसराल को प्राथमिकता देनी चाहिये।
 नई दुल्हन को सुसराल के तौर-तरिको पर टीका-टिप्पणी न करके धीरे-धीरे इसे समझने ,अपनाने व जानने की कोशिश करनी चाहिए, नापंसद होने पर समय व माहौल के साथ बदलने की कोशिश करनी चाहिए।
 नई दुल्हन को अपनी चाल व आवाज को संयमित रखकर चलना और बोलना, न की हाथों को हिलाते हुए तेज-तेज स्वर में बोलना चाहिए।
 मर्यादित व शिष्टतापूर्ण व्यवहार से सुसराल वालो को अपना बनाना चाहिए।
 नई दुल्हन सुसराल में सिर पर पल्लू  लेना न भूले, इसे अपनी पहचान और सुसराल की शान समझे ।
 नई दुल्हन सुसराल में प्यार के बदले प्यार बाॅटे ,न की सुसराल वालो के प्यार का अनुचित फायदा उठाकर,गलत व्यवहार करे।
 पति की बाॅस बनने की कोशिश न करे, बल्कि अपने प्यार व व्यवहार से धीरे-धीरे उनका विश्वास व दिल जीते ।

 सुसराल में नौकरो के साथ भी नम्रता पूर्ण व्यवहार रखे।
 नई दुल्हन को सुसराल में छोटे-बडे रिश्तो की अहमियत को समझते हुए,उनके अनुसार आदर ,प्यार दुलार और सम्मान देना चाहिए।


 
 सुसराल वालोे से लेना ही नहीं ,देना भी सीखे ।

 सुसराल में खुशनुमा माहौल के लिए त्याग करना पडे तो करे और हमेशा सहयोग के लिए तैयार रहे

 नई दुल्हन हमेशा इस बात को समझे कि आपका पति पहले किसी का बेटा   और भाई है,इस पर हक जताकर माॅ व बहन के प्यार को ठेस न पहुचाए।
 सास-सुसर को दिल से माता-पिता समझे और माता-पिता की तरह सम्मान  और प्यार दें।
इन बातों का ध्यान रखकर नई दुल्हन सुसराल में अपना स्थान बनाकर सबकी दुलारी बहु ,भाभी व प्रिया का खिताब जीत सकती है।
            


              प्रेषकः-
              श्रीमति भुवनेश्वरी मालोत
              अस्पताल चैराहा
              महादेव कॅंालोनी
     बाॅसवाडा राज           

रविवार, 6 नवंबर 2011

माता-पिता को मुखाग्नि एक बेटी क्यों नही दे सकती?

                                 आज मेरे दिमाग में एक प्रष्न बार-बार उमड रहा है कि माता- पिता को मुखाग्नि एक बेटी क्यों नही दे सकती है?कहा भी जाता है कि माता पिता के लिए पुत्र व पुत्री समान है और कानूनी रूप से भी सम्पति में भी समान रूप से हकदार है। आज बेटीया उॅच षिक्षा प्राप्त कर पुरूष्ोैे के बराबर उॅची नौकरीया कर रही है।आज वे भी घर की चारदीवारी लाॅघकर खुली हवा में साॅस ले रही है। फिर क्यों इसे इस अधिकार से वंचित किया जाता है यह एक विचारणीय प्रष्न है।


                     हमारे   ष्षास्त्रों व रीति व रिवाजो के अनुसार माॅ-बाप का दाह-संस्कार उनके पुत्र के हाथों होता है व बेटे के न होने पर समाज के या परिवार के अन्य  पुरू ष्ो द्धारा माता-पिता की चिता को मुखाग्नि दी जाती है ।जब बेटीया विरोध करती है और माता -पिता को मुखाग्नि देने की बात करती है,तो रूढियों में जकडा भारतीय समाज षास्त्रों  व मोक्ष न होने की दुहाई देकर इसे नकार देता है। यह एक विचारणीय पहलू है कि माॅ-बाप का अपना खून होते हुए भी एक बेटी घर के एक कोने में बैठी षोक मनाते हुए, किसी दूसरे को माता-पिता के दाह संस्कार का हक कैसे दे सकती है। चुकि आज हमारी सामाजिक मान्यताओं व रूढियों में बहुत बदलाव आया है,एक और जहाॅ बेटियो ने चारो दिषाओं मे अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है, ऐसे में बेटिया को उनके अधिकार से वंचित करके समानता की दुहाइ्र देने वाला यह समाज हमारी बेटियोे के साथ यह कैसा न्याय कर रहा है।


                           जीते जी माता-पिता की अपेक्षा करने वाले बेटे उनके मरने पर  उनकी अंतेष्टि पर  लाखों रूपये खर्च करके  तथा संवेदनहीन समाज को भोज देकर यह  दिखाने में सफल हो जाते है कि उनका अपने माता-पिता से बहुत लगाव था।बेटिया जो निःस्वार्थ भाव से माता-पिता की सेवा करती है,लेकिन उसे मुखाग्नि देने का अधिकार नहीं होता है।कहा जाता हैकि माता पिता की मृत देह को बेटा दाह-संस्कार नही करेगा या बेटा कंधा नहीं देगा तो उनकी आत्मा को षांति नही मिलेगी या मोक्ष की प्राप्ति नही होगी। लेकिन यह सोच बदलनी होगी ।बेटी तो माता-पिता की आत्मा है,और आत्मा तो कभी नही मरती है ,बेटियों को यह अधिकार मिलना ही चाहिये।

                                  श्रीमति भुवनेष्वरी मालोत
                                 अस्पताल चैराहा
                                   महादेव काॅलोनी
                                    बाॅसवाडा राज             

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

WEERA: मिठाई खरीदने और उपयोग करने संबधी टिप्स या सोचिए-...

WEERA: मिठाई खरीदने और उपयोग करने संबधी टिप्स या सोचिए-...: दीपावली रोशनी, उल्लास व खुशियों का त्यौहार है। बि...

WEERA: मिठाई खरीदने और उपयोग करने संबधी टिप्स या सोचिए-...

WEERA: मिठाई खरीदने और उपयोग करने संबधी टिप्स या सोचिए-...: दीपावली रोशनी, उल्लास व खुशियों का त्यौहार है। बि...

मिठाई खरीदने और उपयोग करने संबधी टिप्स या सोचिए- मिठाई खरीदने से पहले

                                                                         


             दीपावली रोशनी, उल्लास व खुशियों का त्यौहार है। बिना मिठाईयों, स्वादिष्ट व मनभावन पकवानों के दीपावली अधूरी है, कई गृहणीयां दीपावली पर घर में मिठाईयां बना लेती है,फिर भी अधिकाश घरों में समय के अभाव व विभिन्नता के चक्कर में व उपहार में देने के लिए मिठाईयां बाजार से खरीदनी ही पडती है।बाजार से मिठाई खरीदने से पहले कुछ सावधानियाॅ बरती जाए,तो स्वास्थ्य व पैसो के नुकसान से बचा जा सकता है।
          इस त्योहार पर हलवाई कई दिनों पहले मिठाईयाॅ बनाना शुरू कर देते है, अधिकांश मिठाईयां दूध से बने मावे,छैने तथा पनीर से बनाई जाती है, जिसे हलवाई कई दिनो पहले तैयार करके रखते है, इससे बनी मिठाईयां स्वास्थ्य पर बुरा असर डालती है, कई बार इसका सेवन करने से जी मिचलाना, पेट मेे दर्द,दस्त-उल्टी आदि बीमारियाॅ त्योहार के मजे को किरकिरा कर देती है, अतः मिठाईयां खरीदने व उपयोग करने से पहले निम्न बातो पर गौर करना जरूरी है।


ऽ दूध से बनी मिठाईयां आवश्कतानुसार ही लाये, क्योंकि ये दो दिन में खराब हो जाती है।





ऽ ध्यान रहे मिठाई  के वजन के साथ गते के डिब्बे का वजन  शामिल न हो।

ऽ चॅादी के वरक से सजी मिठाई का उपयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं ,क्योंकि चांदी के स्थान पर शीशे आदि की मिलावट आम बात है।


ऽ बंगाली मिठाईयों जैसे चमचम, रसगुल्ला,राजभोग आदि पुरानी होने पर अपना स्वाभाविक स्वाद खो देती है,इसलिए ऐसे अवसर पर न खरीदे।

ऽ मिठाई को खरीदने के बाद गते के डिब्बे से निकालकर अन्य पात्र में रखे ,ताकि ज्यादा दिन तक सुरक्षित रह सके ।

ऽ उपहार में मिठाई देते समय दूध से बनी मिठाई न खरीदे। जरूरी हो तो खरीदते समय विशेष सावधानी बरते

ऽ टेस्ट करके ही हलवाई से मिठाई खरीदे और लम्बे समय के लिए उपयोग करनी हो तो, उसे फ्रीज में रख दे।

ऽ रंगीन मिठाईयों के रंग स्वास्थ्य के लिऐ हानिकारक है, जहां तक संभव हो बिना रंग की मिठाईयां ही खरीदे ।

ऽ जहा तक संभव हो अपने हाथों से बनी मिठाईयों व  पकवान से इस त्योहार को मनाईये। 

  थोडी सी सावधानी के साथ इस त्योहार का मजा लिया जा सकता है।






लेखकः-
 श्रीमति भुवनेश्वरी मालोत
  अस्पतालचैराहा,                                        
महादेव का.लोनी,    
बांसवाडा राज.